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अठारहवाँ सर्ग
उसने सुनकर श्री पार्श्वनाथ'-- के वचन सभी कुछ छोड़ दिया। संसार मार्ग से हो विरक्त शिव-पथ से नाताजोड़ लिया ॥
लक्ष्मी का अाराधन तज, श्रारम्भ किया सोऽहं जपना । कर घोर तपस्या सफल किया,
दुर्लभ मानव-जीवन अपना । फल रूप 'ज्योतिषी' देवों में पाया दुर्लभ अवतार वहाँ । है'चन्द्र' नाम का इन्द्र तथा करता सुख सहित विहार वहाँ ॥
जब अपनी निश्चित प्रायु-अवधि, कर लेगा पूर्ण व्यतीत वहाँ। तब ले 'विदेह' में जन्म स्वयं,
पायेगा मोक्ष पुनीत महा ॥" यह शान देख कर 'इन्द्रभूति'पर शीघ्र प्रभाव अतीव पड़ा । सोचा, कैसे भ्रम- सागर मेंथा अब तक मेरा जीव पड़ा ।। .
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