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परम ज्योति. महावीर
शिल्पो का नाम बतायेंगे, है मुझे श्रापसे अाशा यह ।” इतना कह ज्यों ही मौन हुये, त्यों हुई कर्ण गत भाषा यह ।।
"जब 'चन्द्र' इन्द्र ने जाना यह अब बचे घातिया कर्म नहीं । तो समवशरण की रचना की स्वयमेव मान निज धर्म यहीं ।
सुन 'इन्द्रभूति' ने यह उत्तर, यह प्रश्न पुनः तत्काल किया । "यह चन्द्र कौन है ? इसने गतभव में क्या पुण्य विशाल किया ?
यह सभी जानने को मेरा जिज्ञासु हृदय ललचाया है। अतएव बतायें यह, इननेक्यों जन्म वहाँ पर पाया है ?"
उत्तर में सुना कि 'श्रावस्ती' नामक पुर है प्राचीन यहीं। था 'अङ्कित' श्रेष्ठि किया करता, व्यवसाय स्वीय स्वाधीन यहीं ।