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अठारहवाँ सर्ग
यों वहाँ सभी को शान्ति मिली, श्रो, नहीं किसी को प्राप्त हुवा । इससे कुछ प्रश्न वहाँ करनेका गौतम को उल्लास हुवा ।।
पूँछा- “यह मण्डप तो मुझको, होता मानव-कृत ज्ञात नहीं । कारण, ऐसी रचनाएँ तो, मानव के वश की बात नहीं ॥
इससे इसके निर्माता कापरिचय है मुझको ज्ञेय प्रभो । नयनाभिराम इस रचना का, किस शिल्पी को है श्रेय प्रभो ।।
सर्वत्र अलौकिकता दिखती, मण्डप के चारों ओर मुझे। जो अपनी दिव्य छटाओं से, करती है हर्ष विभोर मुझे ॥
अतएव आज मम विस्मय का, है नहीं कहीं भी अन्त अभी । इतनी सुन्दर उपदेश-सभा, देखी न आज पर्यन्त कभी ।।