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जब मान स्तम्भ विलोका तो मानादि नष्ट सत्र क्षिप्र हुये । इस समव शरण की महिमा को, अवलोक चकित
च विप्र हुये ॥
उन्हें 'वीर' के वन्दन में
ही भासा अपना क्षेम स्वयं । संसर्ग --लाभ --
पारस मणि के
से लोह हुवा
था हेम स्वयं ||
जो गर्व श्राज तक उस पर मन ही मन
'श्री' 'महावीर' के में ही रहने का
किया आज क्षोभ हुवा |
समवशरणलोभ हुवा ||
परम ज्योति महावीर
माना, मिथ्या मद के पिशाच-
से आज हमारा त्राण हुवा | अब तक कल्याणाभास रहा ! वास्तविक श्राज कल्याण हुवा ||
इस समवशरण में शरण मिली-है आज हमें जग त्राता की । हमने विलोक ली यह विभूति, इन तीन लोक के शाता की ।।