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सतरहवाँ सर्ग
उसके नीचे वे बैठ गये, निष्वेष्ट बना निज काया को ।
था पहिली बार दिखा ऐसा ध्यानी उस तरु की छाया को ।
प्रभु ने परिणाम विशुद्ध बना, नासा पर दृष्टि मुकायी थी । चढ़ 'क्षपक श्रेणि' पर शुक्ल ध्यान में सारी शक्ति लगायी थी ||
हो गये घातिया कर्म नष्ट, इतना उत्तम वह ध्यान किया ।
वैशाख शुक्ल की दशमी को, पा निर्मल केवल ज्ञान लिया ।।
तत्काल विकृति सब दूर हुई, सब प्रकृति स्वतः अनुकूल हुई । श्र' युगों युगों को वन्दनीय उस सरिता तट की धूल हुई ||
उस दिन की इस शुभ घटना की साक्षी अब भी ऋजुकूला है । उसको इस मङ्गल बेला का
शुभ दृष्य न अब तक भूला है ॥
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