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यों साढ़े बारह
वर्ष चली,
तप की प्रति करुण कहानी यह ।
कर्मों से करता युद्ध रहा, इतने दिन तक सेनानी वह ||
इस दीर्घ अवधि में तीन शतक, उनचास दिवस आहार किया । अवशिष्ट दिनों में निराहार निर्जल रह श्रात्म विहार किया ||
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इस तप से जाने कितने हीतो कर्मों का संहार हुवा | जाने कितने ही श्रात्म गुणों
से भी उसका
शृङ्गार हुवा ||
Cit
परम ज्योति महावीर
कर पुनः 'मध्यमा' से विहार, चल पड़े स्वतन्त्र विहारी वे । देखो,
अत्र होने
सम्पूर्ण ज्ञान के
ईर्या से चलते हुये सतत, वे पहुँचे 'जंभिय' ग्राम निकट | देखा 'ऋजुकूला - सरिता तटपर एक 'साल' का वृक्ष विकट ||
वाले हैं,
धारी वे ॥