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सत्रहवाँ सर्ग
सचिवों को शीन बुला कर मैं इस पर कर रहा विचार अभी । धर्माचार्यों से पूछ रहा, अनगारों का प्राचार सभी ॥
श्राहार दान की रीति पँछ, जनता को शीघ्र जता दूंगा। सब सावधान हो पड़गाहें, यह भी मैं उसे बता दूँगा ॥
यों तो स्वभावतः हे रानी ? धर्मज्ञ हमारी जनता है। पर जाने क्यों इतने दिन से, कोई भी योग न बनता है।
तुम धैर्य रखो मैं परामर्शकर उलझन को सुलझाता हूँ। उनके भोजन को हर सम्भव
श्रायोजन मैं करवाता हूँ॥" नृप 'शतानीक' ने यो रानीको प्रेम सहित समझाया था । पर वास्तव में क्या यत्न करें। यह नहीं समझ में आया था ।