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सत्तरहवाँ सर्ग
अब तक श्राहार न होने से, भक्तों में बढ़ी विकलता थी। पर 'महावीर' के अनस्तल-- में पूर्व समान अटलता थी॥
अब भी तो इसी कसौटी पर, निज कर्म इधर वे कसते थे। श्राहार दान के हेतु उधर, सब श्रावक बन्धु तरसते थे।
पर 'वीर' कभी भी नहीं किसीसे स्वीय अभिग्रह कहते थे। ध्रुवतारे सी दृढ़ता अपना, वे शान्त भाव से रहते थे।
चिन्तित हो रानी 'मृगावती'ने राजा से यह बात कही। "हो रही पारणा नहीं, तथाहो रहा अभिग्रह ज्ञात नहीं ।
हा ! उन्हें हमारी नगरी मेंही मिलती विधि अनुकूल नहीं। श्रा रहे महीनों से हैं वे, पर होती प्रतिदिन भूल कहीं ॥
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