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श्राहार उसी से लूँगा मैं, जो कन्या केश विहीना हो । बद्ध,
श्रृङ्खला
कुलीना हो ||
दासत्व प्राप्त, होकर भी सती
परम
जिसको त्र्य दिवस अनन्तर कुछ कोदों खाने को श्राया हो ।
तभी ग्रहण,
आहार करूँगा जब होंगी बातें इतनी सब |
देखो, उन प्रभु सम्मुख, श्राती है दुस्थिति कितनी अब ?
ज्योति महावीर
'औ' वही मुझे दे देने को, जिसका अन्तस् ललचाया हो ॥
यों निकल गये थे चार मास, उनको चर्यार्थ निकलते श्रव । पर नित्य लौट वे जाते थे, रह जाते निज कर मलते सब ॥
वे उक्त प्रतिज्ञा रख मन में, जाते नगरी की ओर सदा । पर कहीं प्रपूर्ण न होता था, पूर्वोक्त श्रभिग्रह घोर कदा ||