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सत्तरहवाँ सर्ग
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वे वीतराग थे, निज भक्तों - से भी अनुराग न करते थे। इस वीतरागता का सपनेमें भी परित्याग न करते थे ॥
अन्यत्र पारणा हुई, श्रेष्ठिको सुन यह हुई निराशा थी। यद्यपि मन में रह गयी श्राज, उनके मन की अभिलाषा थी ॥
तो भी जिसने श्राहार दियाथा, उस पर व्यक्त न रोष किया । सौभाग्य सराहा उसका, निजदुर्भाग्य समझ परितोष किया ।
'वैशाली' से चल 'सूसुमार'
आये सिद्धार्थ-दुलारे वे। पश्चात् 'भोगपुर' गये, वहाँसे 'नन्दी ग्राम' पधारे वे ॥
फिर पहुँचे 'मेढिय गाँव' पुनः, 'कौशाम्बी' हेतु विहार किया।
औ' पौष-कृष्ण-प्रतिपदा-दिवस मह घोर अभिग्रह धार लिया ॥