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परम ज्योति महावीर
क्रमशः त्रय मास समाप्त हुये, पर उठे नहीं वे दृढ़ ध्यानी । श्राहार दान के लिये बाटरह गये जोहते वे दानी ॥
जब चार मास हो गये पूर्ण, पूरा तब उनका योग हुवा । मध्यान्ह समय चर्यार्थ चले,
पर कुछ विचित्र संयोग हुवा ।। जो श्रेष्ठि प्रमुख गत चार माससे उनका मार्ग निरखते थे । औ' प्रायः उनके लिये शुद्धआहार बनाकर रखते थे ।।
जिनको आशा थी कि अाज, कर लँगा सफल मनोरथ को ।
औ' यही सोच जो देख रहेथे प्रभु के श्राने के पथ को ।।
उन तक आने के पूर्व कहीं, पड़गाह गये वे महा श्रमण । कारण कि जहाँ विधिवत् मिलता, कर लेते भोजन वहीं ग्रहण ॥