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सोलहवाँ सर्ग
अतएव
'वीर' के सदाचार
का आज उन्हें था बोध हुवा | एवं अपने उस कदाचारपर आज उन्हें था क्रोध हुवा ||
थीं मान रहीं यह तुच्छ कार्य, हमसे ही होगा सम्भव अब । अब माना प्रभु को च्युत करना, सब के ही लिए असम्भव अब ।।
जो कहा इन्द्र ने था, वह अबअक्षरशः सच प्रतिभात हुवा | जो गर्व रूप का करतीं थीं, उस पर था उल्कापात हुवा ||
अब वे सुखधुएँ
जब प्रभु ने ऐसा
तो उठे और
की ओर पुण्य
नहीं यहाँ, भान किया ।
चर्यार्थ नगरप्रस्थान किया ||
छह मास पूर्ण हो जाने परही थी उनकी यह भुक्ति हुई । उन निर्मोही का ऐसा तप, अवलोक विमोहित मुक्ति हुई ।।
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