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अति व्यर्थ हमारा गात
हुवा,
अति व्यर्थ हमारी बात हुई ।
,
अति व्यर्थ कटाक्ष निपात हुवा अति व्यर्थ आज यह रोत हुई ||
अतएव चकित हो अंगुलियाँ, हम दाँतों तले दबातीं हैं । आयीं था हो आसक्त यहाँ, पर भक्त बनी अब जातीं हैं |
इतना कह 'त्रिशला नन्दन' का, अभिनन्दन बारम्बार किया । उन काम - निकन्दन के चरणों, का वन्दन बारम्बार बारम्बार किया ॥
परम ज्योति महावीर
फिर तत्क्षण अन्तर्धान हुई, औ' स्वर्ग गयीं सुरबाला वे ।
गयीं,
पहनाने थीं वरमाल श्रायीं गाते जयमाला
कारण कि वीर के नयन लुब्धथे हुये न उनके बालों पर । उन श्रात्म-रसिक के अधर लुब्ध, ये हुये न उनके गालों पर ॥
वे ॥