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परम ज्योति महावीर
रीझे न दिगम्बर वे जिन पर निष्फल से वे परिधान लगे। भूषण दूषण सम औ' दुकूल, अब उनको शूल समान लगे ॥
पर तत्क्षण आया ध्यान कि हमक्या कह कर यहाँ पधारी हैं ? हम इन्हें जीतने पायीं हैं, जा रहीं स्वयं पर हारी हैं ।
यह सोच नाचने लगीं और, गा चलीं प्रेम मय गान मधुर । पर प्रभु का हृदय न तान सकी, उनके गीतों की तान मधुर ॥
उनकी धुन में घुन नहीं लगा - पायी नूपुर की रुनन मुनन । यह देख लगे मुरझाने थे, उनकी आशा के सौम्य सुमन ।।
फिर भी वे नहीं निराश हुई
औ' रचा उन्होंने जाल नया । प्रभु को तप से च्युत करने को, सोचा उपाय तत्काल नया ।।