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सोलहवाँ सर्ग
देखें, न मुग्ध कैसे होते, अवलोक हमारा चन्द्रवदन ? कैसे न मचाता है उनके अन्तर में अन्तर्द्वन्द मदन ?
यह कह वे चलीं तपस्या-च्युतकरने अपनी सुन्दरता से । अति दिव्य आभरण वसन पहिन, तन सजा लिया तत्परता से ॥
श्री 'वीर' समक्ष उन्होंने जा निज को सविलास दिखाया फिर । अति हाव भाव से निज छवि का वैशिष्ट्य सलास दिखाया फिर ॥
पर 'महावीर' ने एक बारभी उनकी ओर नहीं देखा । रस भरी स्वर्ग-सुन्दरियों को नीरस तरु-ठूठों सा लेखा ।।
जब नहीं मुग्ध वे हुये, उन्हेंतब निष्फल अपना देह लगा । भासा वह दिव्य स्वरूप विफल जो नर में सका न स्नेह जगा ॥