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श्रतएव धूल की वर्षा की, पर जमे रहे वे सन्त वहीं |
भू-नम पर धूल दिखाती थी दिखते थे और
दिगन्त नहीं ||
पद से शिर तक दब गये धूल
में, पर न ध्यान से 'वीर' हटे ।
पर,
यह देख नोर बरसाया वे रहे जहाँ के तहाँ डटे ।
यद्यपि यह दृढ़ता देख हुवा, उसको आश्चर्य महान वहाँ । पर सहसा श्राया ध्यान कि मैं आया मन में क्या ठान यहाँ ?
परम ज्योति महावीर
यह सोच पुनः निज माया से रच जन्तु विषैले त्रास दिया । अहि, वृश्चिक, कर्णखजूर श्रादिको छोड़ 'वीर' के पास दिया ||
फिर भी इनसे भयभीत नहीं, हो सके
मनःप
ज्ञानी ।
यह देख देव ने उन
प्रभु की,
धृति, शान्ति, वीरता
पहिचानी ||