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सोलहवाँ सर्ग
यह देख देव
ने
सोचा यह
इनसे न डरे हैं
'वीर' श्रभी ।
मेरे इन सभी
उपायों से,
हैं डिगे न ये गम्भीर अभी ||
मैंने हैं विषम
प्रयत्न किये,
समता है ।
पर तजी न इनने क्या इनको अपनी काया से, रह गयी न किंचित् ममता है ?
सम्भवतः अपने
पथ से
डिग पायेंगे न सरतला
से ।
विफल
पर मेरा भी देवत्व यदि टलते ये न अटलता से ||
ये
यह सोच सिंह औ' चीतों की सेना उसने सोत्साह रची । घमसान वहाँ मच गया सभी जीवों में चीख कराह मची ॥
भी न प्रभाव पड़ा,
पर कोई उन महातपी
उत्साही पर |
सुर की न एक भी युक्ति चली,
उन मुक्ति-मार्ग के राही पर ॥
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