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________________ ४२३ सोलहवाँ सर्ग औ, अपनी माया को समेट, स्वयमेव शान्त वह अमर हुवा । इस अग्नि परीक्षा में तप कर प्रभु-तेज और भी प्रखर हुवा ।। तदनन्तर कर प्रस्थान वहाँसे 'वीर' 'नालुका' आये थे। कुछ रुक 'सुभोग' 'सुच्छेत्ता' कोही ओर स्वपाद बढ़ाये थे । फिर 'मलय' और फिर 'हत्थिसीस' फिर 'तोसलि 'जाकर भ्रमण किया । 'पश्चात् पहुँच 'सिद्धार्थ पुरी" कर ध्यान आत्म का मनन किया ।। 'बज ग्राम' गये फिर, उस सुरनेभी अब तक था सहगमन किया । सर्वत्र विध्न थे किये, जिन्हेंप्रभु ने था निर्भय सहन किया ।। इससे अब हो प्रत्यक्ष प्रगट, प्रभु की महिमा का गान किया । बोला कि "श्रापकी दृढ़ता को मैने सम्यक् पहिचान लिया ।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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