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परम ज्योति महावीर
सोलह उपवास निरन्तर कर, विधिवत् शुभ ध्यान जमाया था । दिन रात खड़े ही रहे गात, हद मेरु समान बनाया था ।
इस दीर्घ अवधि में ध्यानी वे, सम्पूर्णतया ही मौन रहे । इस नश्वर स्वर से उनकी यह अविनश्वर महिमा कौन कहे ?
उनने निकाल कर दूर किया, निज कोमल तन का मोह सभी ?
औ' किये पराजित दृढ़ता से, पाषाण, बज्र औ लोह सभी ॥
कर पुनः विहार वहाँ से चल, 'दृढ़ भूमि' गये निर्मोही वे। ध्यानस्थ चैत्य में हुये लक्ष्य
कर अपने चेतन को ही वे || अहम तप धारण कर रजनीभर किये रहे अनिमेष नयन । वे रहे जागते उस क्षण भी, जब करता था सब देश शयन ।