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सोलहवाँ सर्ग
उनकी इच्छा थी सर्व प्रथम, निज आत्मा का उद्धार करूँ ।
हेतु
धर्म-प्रचार करूँ ॥
पश्चात् जगत्-उद्वार
श्राजीवन
'सिद्वार्थ पुरी' से चलकर फिर 'वैशाली' नगर पधारे वे । पुर के बाहर ध्यानार्थ वहाँ, सिद्वार्थ-दुलारे
बैठे
वे ॥
तदनन्तर चल 'वैशाली' से, 'वाणिज्य ग्राम' वे नाथ गये । पथ में ग्रामीण पुरुष उनके पद पर नत करते माथ गये ||
'वाणिज्य ग्राम' से 'श्रावस्ती'की ओर उन्होंने किया गमन । कर दसवाँ वर्षावास वहीं, निर्विघ्न किया निज श्रात्म मनन ||
यह
चतुर्मास हो जाने पर
चल दिया, वहाँ से उसी समय । श्री' पहुँच 'सानुलडिय' पुर में कर्मों से पाने हेतु विजय ॥
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