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पन्द्रहवाँ सर्ग
आ वहाँ नगर के बाहर रुक,
कुछ समय रहे वे
ध्यान निरत ।
पश्चात् वहाँ से श्रये वे चलते
'राजगृही'
ये सतत ॥
आठवाँ चतुर्मास,
कर यहीं उनने तप-योग विराट् किया । रह चार मास तक निराहार, गणित कर्मों को काट दिया ||
यों क्रमशः क्षय होते जाते
थे ।
थे, जितने कर्म पुराने करते न पुण्य औ' पाप अब नूतन कर्म न श्राने थे ||
तः,
फिर भी जो शेष रहे उनके -- क्षय की उनको अभिलाष हुई । अतएव 'अनार्य प्रदेशों में, जाने की फिर से प्यास हुई ||
इस हेतु 'राद' की वज्रभूमि'-- में गये वहाँ से वे प्रभुवर ।
श्रौ, वहाँ परीषद विविध सहीं,
उनने मानस में समता घर ॥
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