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पन्द्रहवाँ सर्ग
उनका तप दर्शन सा दुरूह, थी किन्तु सरलता कविता सी । वाणी प्रिय चन्द्र कला सी थी, मुख पर आभा थी सविता सी ||
भत समझो, कवि यह अपने मनसे गढ़ गढ़ कर सब कहता है । विश्वास रखो, ध्रुव सत्य छन्द-में पिघल पिघल कर बहता है ||
यों कठिन आसनों से करते निज ध्यान अनेक प्रकार सदा । करते उपाय हर, करने कोश्रात्मा से दूर विकार सदा ||
तन तप करता, पर चेतन का - सौन्दर्य निखरता जाता था । श्रौ' कर्म-वृक्ष से क्रमशः ही,
हर पल्लव झरता जाता था ||
पर ।
रच रहे तीर्थ थे वे संयम-तप-ब्रह्मचर्य के संगम हो रही सफलता मोहित थी, उन तीर्थकर के विक्रम पर ॥
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