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________________ पन्द्रहवाँ सर्ग थे किये अभी तक 'आर्यभूमि'~~ में ही सब वर्षावास यहीं । एवं 'अनार्य' में जाने का, अब तक था किया प्रयास नहीं ।। पर कर्म क्ष्यार्थ वहाँ जानेका अब इस बार विचार किया । श्रौ' राढ़ भूमि की ओर उन्हों-- ने अब इस बार विहार किया । अविवेक अनार्यों का विलोक--- भी हुये न तुब्ध विवेकी वे ! उनने अनेक उत्पात किये, पर टिके रहे दृढ़ टेकी वे ।। औ' कभी अनार्यों के कार्यों-~ से उन्हें हुवा उद्वेग नहीं । विनों के अड़े हिमालय पर हारा उनका संवेग नहीं ।। यों वहाँ भ्रमण कर 'श्रार्य देश'में उनने पुण्य प्रवेश किया । अपने विहार से अति पावन, वह 'मलय' नाम का देश किया ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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