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पन्द्रहवाँ सर्ग
४.१
उस समय वहाँ का करुण दृश्य, अति हृदय विदारक लगता था । इस तेज पुञ्ज से डर भी वह, तेजस्वी किन्तु न भगता था ।
हो गया हताश हुताश निरख, तप-तेज-प्रकाश विलक्षण यह । अवलोक 'वीर' की शान्ति स्वयं, हो गया शान्त फिर तत्क्षण वह ।।
सब घास पत्तियाँ राख हुई
औ' रही न शेष ललामी अब । निज नयन खोल इस भाँति उठे, उस समय वहाँ से स्वामी अब ।।
जैसे कि अग्नि ज्वालात्रों ने, हो उनसे प्यार दुलार किया। या बन्धु समझ उन तेजस्वी
का हो स्वागत सत्कार किया । पश्चात् 'नंगला' गये वहाँसे चल 'सिद्धार्थ-दुलारे' वे । कुछ समय वहाँ पर रुक कर फिर, "श्रावत्ता' ग्राम पधारे वे॥