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कुछ ही क्षण में वह अग्नि फैल
हो और अधिक विकराल गयी ।
बढ़ते बढ़ते वह
ध्यानमग्न-
प्रभु के समीप तत्काल गयी ॥
यह प्रभुवर ने,
उपसर्ग जान दृढ़ मेरु समान शरीर किया । वह अग्नि ज्वाल सह लेने को मन सागर सा गम्भीर किया ||
वह अग्नि और भी अरुण हुई, वह दृष्य और भी करुण हुआ। यह सहनशीलता देख स्वयं, श्राश्चर्य चकित सा वरुण हुवा ||
परम ज्योति महावीर
'गोशालक' उठ कर भाग गया, पर नहीं 'वीर' का रोम कँपा । उनकी इस दृढ़ता को विलोक, यह धरा कँपी, यह व्योम कँपा ||
सारी शक्ति लगा,
विशेष सुरङ्ग हुई |
ज्वाल,
हुई ||
अत्र मानो
वह अग्नि
अत्यन्त निकट श्रा गयी
पर 'वीर' समाधि न भङ्ग