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बारहवाँ स
इस चिन्तन से उनकी विरक्ति-
का रूप और अवदात हुवा | पर राग, द्वेष औ' ममता पर सहसा ही उल्कापात
हुवा ॥
भय के मारे मोहादिक सब दुर्भाव सर्वथा दूर हुये ।
भय, गर्व, अरति, आश्चर्य, खेद, चिन्तादिक चकनाचूर हुये ॥
द्वादश अनुप्रेक्षा भाने में, अब लगी न किंचित देर उन्हें । कोई भी बाधक तत्व नहीं' पाये इस क्षण में घेर उन्हें ॥
सोचा, अमरत्व नहीं पाते-हैं अमर कहा भी देव कभी ।
हो जाते नष्ट सुरेश्वर औ' चक्रो आदिक स्वयमेव सभी ॥
हो जहाँ न मैंने ऐसा है कोई देश
रह नहीं सका मैं इन्द्र सदा, रह सका सदैव नरेश नहीं ॥
१ - श्रनित्यानुप्रेक्षा
जन्म लिया,
नही ।
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