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श्रौ' नहीं रहेगा
चना सदा,
मेरा यह सुन्दर देह हो ।
अन्यत्र अलभ
सुन्दरता का,
जो है लोकोत्तर गेह हो ॥
श्रदीश जन्म में
जिनने रत्नों की
वे कहाँ गये
षट् मास मिला
कोई इसको न बचा सकता,
इसमें
किंचित् सन्देह नहीं ।
विपदा की बेला ने पर
दिखलाता
कोई स्नेह नहीं ||
बरसायी,
धार यहीं ।
प्रभुवर को,
आहार नहीं ॥
जब
परम ज्योति महावीर
जिन 'रामचन्द्र' ने 'सीता का " 'रावण' - गृह से उद्धार किया । उस गर्भवती को उनने ही वन भेज क्रूर व्यवहार किया ||
अतएव सकल सांसारिक सुख, मधु से लिपटी असिधारा है । इससे सुख की श्राशा करना, अतिशय अज्ञान हमारा है ॥ २. शरणानुप्रेक्षा । ३ संसारानुप्रेक्षा ।