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बारहवाँ सर्ग
हो सिंह जीव-हत्याएं की, मैंने गंगा के घाटों पर हो चको भी साम्राज्य किया, बत्तिस सहस्र सम्राटों पर ।
चरणों से कुचला गया कभी मैं होकर पथ की घास अहो । श्रौ' कभी बैठ इन्द्रासन पर
सुख भोगे हैं सोल्लास अहो । सुर, नर, पशु, नर्क चतुर्गति में, अब तक अनादि से घूम चुका । सह चुका यातना नरकों की औ' मचा स्वर्ग में धूम चुका ।
हो हिंसक निर्मम जीव कभी, मैंने की हिंसा घोर अहो ।
औ' कभी अहिंसक मुनि होकर मैं बढ़ा दया की ओर अहो ।।
क्रमशः ये दृश्य सभी उनके, शुचि अवधि ज्ञान में चमक गये । गत सभी भवों के दृश्य उन्हें, चल चित्र सदृश ही झलक गये ।