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जब अश्वमेघ के समय अश्व,
करते हैं करुण विलाप कहीं । तो मुझको लगता, इसी समय ---- जा रोकूँ मैं यह पाप
वहीं ॥
मानवता थर थर काँप
मानव के क्रिया कलापों
श्रतएव श्रहिंसा का प्रचार-
करने की है श्रभिलाष
मुझे ।
अविलम्ब
रोकना
यज्ञों में
होने वाला पशु-नाश
मुझे !
राज्यासन पाने
से मेरा चित्तं
परम ज्योति महावीर
सुकुमार हिंसा झुलस हिंसाल के सन्तापों
की लिप्सा-
मलीन नहीं ।
इससे कदापि सिंहासन पर
मैं होऊँगा श्रासोन नहीं ||
रही,
से ।
रही,
से ॥
है यही हेतु, जो भाते हैंमुमको ये भोग विलास नहीं । औ' राजमुकुट को लेने की को किंचित् भी प्यास नहीं ॥