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बारहवाँ सर्ग
इस राज्य रमा से नहीं किन्तु है मुक्ति रमा से प्रेम मुझे ।
औ' प्राप्त उसे ही करने में, दिखता है अपना क्षेम मुझे ॥
ये राज्य-भोग सब लगते हैं, मुझको प्राणान्तक रोगों से । इससे मुझको किंचित भी तो, अनुराग नहीं इन भोगों से ||
इस राजभवन में रहना भी, अब मुझे भार सा लगता है। निर्ग्रन्थ दिगम्बर बनने को मन बारम्बार उमंगता है।
निज का पर का हित करने को, मेरा अन्तस् अकुलाता है। नर-पशु का कन्दन रोदन यह अब मुझसे सुना न जाता है ।
अजमेध-यज्ञ की बेला में, जब बलि के अज चिल्लाते हैं । तब मुझको ऐसा लगता है, मानो वे मुझे बुलाते हैं।