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'सिद्धार्थ' कथन को सावधान
हो सुनते रहे
विरागी वे ।
पर द्रवित न
राज्य - प्रलोभन से
हो सके श्रहो !
बड़भागी वे ॥
-
अपना
वक्तव्य समाप्त सभी
कर ज्यों ही चुप नरराज हुये ॥ त्यों उनसे निज निश्चय कहनेको उद्यत वे युवराज हुये ॥
बोले कि "आपको मम वचनों-से होगी यदपि निराशा ही ! पर मुझे उचित ही लगता है, कह देना निज अभिलाषा भी ॥
परम ज्योति महावीर
हे तात ! राज्य के भगों से, है मुझे अल्प भी प्रीति नहीं । औ' क्षणिक चञ्चला लक्ष्मी पर मुझको मात्र प्रतीति नहीं ||
में
अतएव राज्य - संघर्षो करना न शक्ति अवरुद्ध मुझे । कारण, पाना है मोक्ष राज्य, कर निज कर्मों से युद्ध मुझे।