________________
३००
म्बारहवाँ सम
सिंहासन क्या ? इन्द्रासन भी,, कर सकता मुझको लुब्ध न अब । यह 'कुण्डग्राम' क्या ? अलका का, वैभव कर सकता क्षब्ध न अब ।।
ध्रुव सत्य मान लें आप इसे, साम्राज्य कदापि न लूँगा मैं ।
औ' अधिक दिनों इस, राजमवन,
में भी अब नही रुकूँगा मैं || यह राज्य त्याग वैराग्य-राज्यअब मैं अविलम्ब सम्हालँगा । दे हर प्राणी को अभयदान, षट् काय प्रजा को पालँगा ।
राजा बन नहीं मिटाया जासकता जनता का क्लेश कभी। कारण, न किसी को सच्चा सुख, दे सकते राज्यादेश कभी ॥
जिस राज्य-सम्पदा को सुख का, श्रावास सममता लोक स्वयं । मैं मान रहा हूँ, उसको हीमधु लिप्त खड्ग की नोक स्वयं ।।