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परम ज्योति महावीर
वर की भूषा में मुझे नहीं, देखेगा कुण्डन नगर कभी ।
औ' नहीं कहेंगे 'प्रिये' किसीको भी मेरे ये अधर कभी ॥
कह नहीं रहा भावुकता वश, पालूगा ये उद्गार सदा । कर रहा आपके सम्मुख प्रण,
रहने के हेतु कुमार सदा ।। दें श्राप अशीष हिमाचल सा, मैं अपने प्रण पर अचल हूँ। निज पथ से रवि शशि टलें भले, पर मैं निज पथ पर अटल रहूँ॥
कुछ कष्ट आपको यदि मेरे, निश्चय ने पहुँचाया हो।
औ' ध्यान विनय का रहते भी, यदि कुछ अप्रिय कह पाया हो ।
तो क्षमा करें औ' पुत्र वधूपाने को अब ललचाये मत, अवलोक कुमार मुझे अपना, सुकुमार शरीर सुखाएं मत ।।