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दसवाँ सर्ग
इससे परिणयन कराना अब, मेरे पथ के अनुकूल नहीं । मैं अतः किसी भी कन्या केदृग में डालूँगा धूल नहीं ॥
निज पथ में मान रहा, नागिनके सम नारी के केशों को । इससे हे माँ ! मैं पूर्ण नहीं,
कर पाता तव आदेशों को ॥ मेरा जो कुछ भी निश्चय था, वह मैंने निस्सङ्कोच कहा । करना अब पुनर्विचार नहीं, सब कुछ सम्यक ही सोच कहा ॥
लो मान, किसी भी कान्ता काबनना है मुझको कन्त नहीं । करना निवास इस राजभवनमें भी जीवन पर्यन्त नहीं ॥
इससे अब हार मँगाएँ मत, गहने भी आप गढ़ायें मत । औ' मुझे विवाह कराने का, भी पाठ कदापि पढ़ायें मत ॥