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परम ज्योति महावीर
___ थी सुनी सारथी के मुख से,
उनने पशुओं की करुण कथा । देखी न लोचनों द्वारा थी, वह उनकी अन्तिम मरण व्यथा ।।
पर इतने से ही विरत हुये, माना न किसी का भी कहना ।
औ' क्षण भर के भी लिये नहीं,
स्वीकार किया गृह में रहना ।। पर आज निरन्तर पशुओं का चीत्कार सुनायी देता है। उनके रोदन सँग मन्त्रों का उच्चार सुनायी देता है ।।
यह देख मुझे भी लगता है यह राज भवन अब कारा सा । मेरा ही पौरुष अब मुझको, प्रायः करता धिक्कारा सा ॥
मैं नहीं चाहता सदा रहूँ, इस पिंजड़े का ही कीर बना । उन्मुक्त विचरने को रहताहैं मेरा हृदय अधीर बना ।।