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दसवाँ सर्ग
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उद्देश्य पूर्ण वह करना है, जो लेकर जग में आया हूँ। जो धर्म प्रचारण करने को, यह तीर्थकर पद पाया हूँ ।
कुण्ठित सी दया अहिंसा को, है केवल मुझसे आशा यह । मैं उनकी पीड़ा दूर करू, हर पीड़ित की अभिलाषा यह ॥
हो रहा पतन नैतिकता का, इसको भी मुझे उठाना है । निज प्रेम न केवल एक प्रिया, हर प्राणी हेतु लुटाना है ।
देखो कि 'नेमि' ने पशुओं काकन्दन सुन त्यागे थे कङ्गण । इस भाँति मौर को फेंका था, मानो हो विषधर का ही फण ॥
'श्री कृष्ण' न उनको रोक सके, समझा यदुवंशी थके कई । पर लिया 'द्वारिका'-राज्य नहीं, श्रो' वरी न 'राजुल' रूप मयी ॥