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दसवाँ सर्ग
विश्वास मुझे, हो जायेगातुमको भी उससे प्रेम स्वयं । औ' प्रकृति मिलेगी दोनों की, होगा दोनों का क्षेम स्वयं ॥
वह नत्र से शिख तक सुन्दर है, काया का रङ्ग मनोहर है । श्राकार करू क्या वर्णित मैं, उसका हर अङ्ग मनोहर है ॥
उसमें नारी के लावण्य, शील औौ'
रुचि भी अत्यन्त
मोहक रहती तन
सुगुण सभी, लज्जा भी ।
परिष्कृत है,
सज्जा भी ॥
उस जैसी छवि की अन्य सुता, मिल सकती कहीं न लाखों में । जिस दिन से देखा, उस दिन वे, वह झूल रही मम श्रांखों में ||
ही आकर्षक,
होते अतीव उसके सब क्रिया कलाप स्वयं । यदि तुम उसको लो देख, पड़े, तो तुम पर उसकी छाप स्वयं ।
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