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ठवाँ सर्ग
श्रतएव अल्प वय में भी वे,
प्रख्यात, प्रवीण, प्रबुद्ध हुये । जिसने भी उनका दर्श किया, उसके परिणाम विशुद्ध हुये ||
उनके समक्ष श्रा जाते ही, विभ्रम संशय सब भगता था । सुस्पष्ट विषय हो जाता था, सत्यार्थ ज्ञान भी जगता था ॥
मित्र जनों
निर्भय ।
वे एक बार निज के सङ्ग खेलते थे इतने में श्राये दो चारण, मुनिनायक 'संजय' और 'विजय' ॥
इनको जीवों के
पुनर्जन्म
में था विभ्रम का मान
हुवा |
उनका यह संशय हरने में, असफल था हर विद्वान हुवा ॥
पर 'वर्धमान' के दर्शन का, उन पर अति प्रबल प्रभाव हुवा | मति का भ्रम मिटा, मिली सन्मति, सुस्पष्ट स्वयं सब भाव हुवा ||
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