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परम ज्योति महावोर
हिंसात्मक वृत्ति न सपने मेंभी आती उनके पास कभी । वे चरणों से न कुचलते थे, उद्यानों की भी घास कभी ।
निपुणों के बिना सिखाये ही, उनमें पाया नैपुण्य अहो । गुणियों से शिक्षा लिये बिना वे हुये स्वयं ही गुण्य अहो ।
उनकी वय के ही सङ्ग स्वय, सम्यक्त व ज्ञान भी बढ़ता था । उनके तन के हो सङ्ग स्वयं, संयम ऊपर को चढ़ता था ॥
लगता था, धर्म स्वय उनके, मन वचन कर्म पर बसता है ।
औ' जन्म काल से ही जीवन
सङ्गिनी बनी समरसता है ॥ जन देख सुरुचि उनको अँगुलीनिज दाँतों तले दबाते थे। एवं दयालुता देख सभी, आश्चर्य चकित रह जाते थे।