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श्राठवाँ सर्ग
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था गया जन्म में नाम धरा, फिर धरा किसी ने नाम नहीं । पाया न किसी भी बालक में, उन सम स्वभाव अभिराम कहीं ॥
उठते थे उनके अन्तस में, शुभ उच्च विचार पुनीत सदा । अतएव हीनता का अनुभव,
उनमें होता न प्रतीत कदा ॥ जो बने किसी को दुख कारक, रुचता वह मनो विनोद न था । जो बने किसी का सुखहारक, भाता ऐसा श्रामोद न था ।
वे नहीं तोड़ते कलियाँ तक, निष्फल न बहाते पानी तक । करते न कभी विकथाएँ तक,
कहते न असत्य कहानी तक ॥ उन पुण्यवान् को छू न सकाथा साधारण भी पाप कदा। उनको चेष्टाएँ सब शुभ, होती थीं अपने आप सदा ॥