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वे
वे जो क्रीड़ाएँ
होतीं निर्मल निर्दोष
सभी ।
मानो शैशव में ही उनकोथा मिला ज्ञान का कोष सभी ॥
करते,
वैभव की गोदी में पलनेपर भी तो उनमें दम्भ न था । प्रिय अधिक परिग्रह था न उन्हें, रुचता भी अति आरम्भ न था ।।
की धरणी
वे सदा सामने को देख चरण निज धरते थे ।
श्र' नहीं किसी भी बाल मित्रके सङ्ग कलह वे करते थे ॥
परम ज्योति महावीर
उनके मुख से कटु शब्द कभी, सुन पायी कोई धाय नहीं । श्रौ' उन्हें किसी के सङ्ग कभी, करते देखा अन्याय
नहीं ॥
वे किसी वस्तु के पाने कोभी नहीं कदापि श्रधीर दिखे । निज शैशव में भी वृद्धों सम, अतिधीर वीर गम्भीर दिखे ॥