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________________ २३८ वे वे जो क्रीड़ाएँ होतीं निर्मल निर्दोष सभी । मानो शैशव में ही उनकोथा मिला ज्ञान का कोष सभी ॥ करते, वैभव की गोदी में पलनेपर भी तो उनमें दम्भ न था । प्रिय अधिक परिग्रह था न उन्हें, रुचता भी अति आरम्भ न था ।। की धरणी वे सदा सामने को देख चरण निज धरते थे । श्र' नहीं किसी भी बाल मित्रके सङ्ग कलह वे करते थे ॥ परम ज्योति महावीर उनके मुख से कटु शब्द कभी, सुन पायी कोई धाय नहीं । श्रौ' उन्हें किसी के सङ्ग कभी, करते देखा अन्याय नहीं ॥ वे किसी वस्तु के पाने कोभी नहीं कदापि श्रधीर दिखे । निज शैशव में भी वृद्धों सम, अतिधीर वीर गम्भीर दिखे ॥
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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