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आठवाँ सर्ग
वे सदा प्रफुल्लित रहते थे, मुख होता कभी उदास न था। सुर पुर से आने के कारण, रोने का भी अभ्यास न था ।।
इससे ही उन्हें खिलाने में, थकती न एक भी दासी थी। खो देती उनकी सुस्मिति में,
हर दासी निजी उदासी थी ।। क्रमशः निज कोमल घुटनों के~ बल चलने वे जगदीश लगे । प्रिय मधुर वाक् में कहने निज भावों को वे वागीश लगे ॥
जिस दिन 'त्रिशला' ने प्रथम बार उनको भूपर चलते देखा । उस दिन की उनकी पुलकन का
कवि श्राज लगाये क्या लेखा ? उनका संस्पर्शन तक तत्क्षण, श्रामोद विलक्षण देता था । इससे समोद ही गोद उन्हें, हर सजन परिजन लेता था ।