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________________ २२८ परम ज्योति महावीर इस समय वहीं से श्राकर यह, त्रिशला-गृह किया पुनीत अहा । यो सबने देखा, कैसा इनप्रभुवर का अखिल अतीत रहा । अवलोक पूर्वभव उनके सब, मन में अानन्द अपार हुवा । समझा, कितने भवधारण कर, यह तीर्थकर-अवतार हुवा ? तदनन्तर ही प्रारम्भ किया, सुरपति ने ताण्डव नृत्य स्वयं । अवलोक जिसे हर दर्शक ने, निज दृग माने कृतकृत्य स्वयं ।। । अति भावपूर्ण मुद्राओं मय, - इस अोर नृत्य व्यापार चला। उस ओर हरेक प्रशंसाकर, मन ही मन बारम्बार चला ।। जो नर्तन करते दिखते थे, क्षण पूर्व एक सुरपाल वहाँ । वे वैसे ही होकर अनेक, दिखने लगते तत्काल वहाँ ।।
SR No.010136
Book TitleParam Jyoti Mahavir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhanyakumar Jain
PublisherFulchand Zaverchand Godha Jain Granthmala Indore
Publication Year1961
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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