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पाठवाँ सर्ग
तदनन्तर 'हिमगिरि' पर इनको, वनराज-देह का लाभ हुवा । सम्यक्त्व यहाँ पा स्वर्ग गये, सुर 'सिंह केतु' अमिताभ हुवा ।।
फिर जनमे 'पंख' खगेश्वर के, 'कनकाजवल' नाम ललाम हुवा। तप तप कर देह तजी, इनसे.
शोभित 'लानत्व' सुरधाम हुवा ।। फिर 'अवधपुरी' में 'वज्रसेन'
औ' 'शीलवती' के लाल हुये ।। कर पुनः समाधि मरण, दसवेंसुरपुर में देव विशाल हुये ।।
फिर 'पुण्डरीकिणी' में इनको, चक्री का पद सविलास मिला। जिसको तज कर तप तपने से, द्वादशम स्वर्ग में वास मिला |
पश्चात् 'नन्दिवर्धन' नृप के, सुत हुये 'नन्द' शुभ नाम हुवा । तीर्थकरत्व बँध गया, पुनःयोभित 'अच्युत" सुरधाम हुवा ॥