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परम ज्योति महावीर
प्रनु-काया स्वतः मनोहर थी, अब और मनोहर ज्ञात हुई । उसकी सुषमा सुरनायक कोभी तो विस्मय की बात हुई ।।
इससे उनने संख्या सहस्र की तत्क्षण अपनी आँखों की । पर समझा इस छवि-दर्शन को, पर्याप्त न आँखें लाखों भी ।।
उन 'परम ज्योति' की काया कीसुन्दरता का था अन्त नहीं । अतएव तृप्त हो पाये थे, वे इन्द्राणो के कन्त नहीं ।।
उनने श्रद्धा से गद्गद हो, संस्तुति करते इस भाँति कहा । 'हे नाथ ! जगत के सब जीवोंको सुखद आपका जन्म अहा ॥
ले गोद श्रापको धन्य हुईहै आज हमारी गोद प्रभो । औ' मना जन्म कल्याणक यह, हो रहा हमें अति मोद प्रभो ॥