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सातवाँ सर्ग
इन्द्राणी ने उनके तन पर,
शुचि लेप भक्ति के साथ किया । ' तिलक लगा कर अति शोभित, उन 'लोक तिलक' का माथ किया ||
उन प्रभुवर के,
' त्रैलोक्य मुकुट' मस्तक पर मुकुट पिन्हाया फिर ।
उन जग के चूड़ामणि के शिरपर चूड़ामणी लगाया फिर ॥
नयनों में
नाँजा पर
वे नहीं अल्प
भी क्षुब्ध हुये ।
कर्णो में कुन्डल
पहिनाये,
पर वे न अल्प भी लुब्ध हुये ॥
मणिहार कण्ठ में डाला पर, उससे न उन्हें कुछ क्षोभ हुवा | कटि में कटि सूत्र पिन्हाया पर, उसका न उन्हें कुछ लोभ हुवा ||
श्रृंगार शची ने पर हुवा नाथ को
भय भय के मारे श्राया था,
उन निर्भय प्रभु के पास नहीं ||
पूर्ण किया, त्रास नहीं ।
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