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बज रहे दुन्दुभी
बाजे थे,
कर रहीं सुरीं थीं
लास मधुर ।
मण्डप में,
हो रही व्याप्त थी कालागुरु की शुभ वास मधुर ॥
'सौधर्म' इन्द्र ने निज कर में,
व प्रथम कलश सोल्लास लिया । ईशान इन्द्र ने भी वैसाही अन्य कलश सविलास लिया ||
उस समय वहाँ
जो हर्ष हुवा,
वह जा सकता किस भाँति लिखा ? सब वर्णन वह ही लिख सकता, जिसको वह सब प्रत्यक्ष दिखा |
पर वर्णन कल्पित मत मानें, सब कुछ सम्भव सुर-लीला को । चाहे तो क्षण में सोने का - कर दें मिट्टी के टीला को ||
आरम्भ हुई अभिषेक किया, पर प्रभु को पहुँचा क्लेश नहीं । बाठको ! हमारे से निर्बलथे उनके देह-प्रवेश नहीं ||
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