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सातवाँ सर्ग
आये थे,
यह सोच चढ़ाने सुर श्रद्धा के दो फूल उन्हें । विभु की पूजा भी करनी थी, निज वैभव के अनुकूल उन्हें ॥
पर प्रभु-दर्शन की प्रबल चाहथी जगी शची के हग-मन में ।
अतएव नहीं वे सिद्धार्थ - भूप के
जा गुप्त रूप से सौरि सदनमें अवलोका जिन माता को । उनके समीप में ही लेटे, नव युग के नव निर्माता को ॥
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श्रतएव जिनेश्वर की जननीको सुला दिया द्रुत माया से ।
शिशु अन्य लिटाया मायामय, चिपटा कर उनकी काया से ||
अधिक रुकीं, में ॥
श्रांगन
उन दोनों का दर्शन कर उनका मन फूला नहीं समाता था । उन नव कुमार के लेने को,
उनका करतल ललचाता था |
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