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परम ज्योति महावीर
फिर मृदु हथेलियों में उनने, वह सद्यः जात कुमार लिया । निज लोचन चषकों से उनका, रूपामृत बारम्बार पिया ।।
पश्चात् उन्हें ले सौरि-सदन, से बाहर वे सामोद चलीं । कुछ नहीं किसी को ज्ञात हुवा, वे प्रभु से भर निज गोद चलीं ॥
जिनपति का दर्शन कर सुरपतिका भी अन्तस्तल मोहा था । तत्काल शची से बालक ले, सुरपाल अधिकतम सोहा था ॥
अब जिनवर का अभिषेकोत्सव, करने की उन्हें उमङ्ग हुई । सत्वर 'सुमेरु' की ओर चले, सुर-सेना उनके सङ्ग हुई।
सब देव जिनेश्वर का तन ही, अब बारम्बार निरखते थे। वे निर्निमेष निज नयनों से, उनका रूपामृत चखते थे।