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· अज सर्ग
करतीं न उपेक्षित किंचित् भी, कोई भी धर्म-प्रसङ्ग कभी । उनकी तत्परता बतलातेथे दिनचर्या के ढङ्ग सभी ॥
प्राशुक जल के ही द्वारा वे, प्रातः प्रति दिवस नहातीं थीं। औ' बिना प्रयोजन चुल्लू भर, भी पानी नहीं बहातीं थीं।
लघु अन्तराय का कारण भी, पाते उनके गृह सन्त नहीं । वे रहतीं कितनी सावधान ? था इसका कोई अन्त नहीं ।
स्वयमेव स्वकर से देकर वे सत्पात्रों को आहार मधुर । उनकी संस्तुति में कहतीं थीं, अति बिनय भरे उद्गार मधुर ॥
यों धर्म-प्रसङ्ग बने रहनेसे नहीं समय का भान हुवा । श्रा गया बसन्त, सुशोभित अब 'त्रिशला' का राजोद्यान हुवा ॥